(दिनेश प्रसाद सिन्हा साउथ अफ्रीका मलावी)
उन दिनों शहर में दो सत्ता पोषित गुण्डों, राम और रहिम का राज कायम था और जनता बेहाल थी। अचानक हुई एक मौत, जो हत्या लग रही थी, उसे दुर्घटना का रूप दे दिया गया था। साक्ष्य छुपाने का प्रयास किया गया ताकि मूल हत्यारे का अपराध छुप सके। आमतौर पर शहर में हर तरह के अपराध प्रायः हो रहे थे। इसलिए परेशान जनता की ज़ुबान पर एक ही भूत सवार था – अपराध मुक्त शहर हो और माफिया भगाएं।
उसी शहर में एक प्रौढ़ रहता था। वह भी चाहता था कि शहर गुंडा और अपराध मुक्त हो। प्रौढ़ को परेशानी यह थी कि वह यह समझ नहीं पा रहा था कि माफिया कौन है। प्रौढ़ ने सोचा कि राम या रहिम में से कोई गुंडा होगा।
एक शाम, शहर के चौराहे पर राम गर्मागर्म भाषण दे रहा था, “गुंडों से शहर को मुक्त कराकर ही दम लूंगा, चाहे मेरी लाश ही क्यों न गिर जाए।”
दूसरी सुबह, शहर के अन्य चौराहे पर रहिम आग उगल रहा था, “चाहे जो भुगतना पड़े, शहर को हर हाल में अपराध मुक्त करके ही दम लूंगा।”
प्रौढ़ असमंजस में पड़ गया कि आखिर गुंडा है कौन। बूढ़े ने शहर के बुद्धिजीवियों से पूछना शुरू कर दिया, “राम और रहिम में गुंडा कौन है? क्या कोई तीसरा भी अपराधी है? किसे शहर से भगाना है?”
उसी दोपहर, राम और रहिम के गुर्गों ने एक साथ प्रौढ़ को मार-पीट की। दोनों ही कह रहे थे, “मारो इसको, यह शहर में घूम-घूमकर गुंडा का पता पूछ रहा है। यही सबसे बड़ा गुंडा है।”