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डॉ. शारदा सिन्हा ने बिहारी संगीत पद्धति को जिंदा रखा

दिनेश प्रसाद सिन्हा, मलावी अफ्रीका

1. शारदा सिन्हा का जीवन परिचय

शारदा सिन्हा, जिन्हें “बिहार की स्वर-कोकिला” के नाम से जाना जाता है, भारतीय लोक संगीत के क्षेत्र में एक अनमोल रत्न हैं। उनका जन्म 1 अक्टूबर 1952 को बिहार के सुपौल जिले के हलस गाँव में हुआ था, जो एक भूमिहार ब्राह्मण परिवार से थीं। उनके पिता, सुकदेव ठाकुर, सरकारी सेवा में थे और उन्होंने शारदा जी को संगीत का प्रारंभिक ज्ञान दिया। शारदा सिन्हा ने मैथिली, भोजपुरी, मगही, अंगिका और हिंदी में गाते हुए भारतीय लोक संगीत को एक नई पहचान दी।

2. पुरस्कार और सम्मान

शारदा जी को अनेक राज्य और राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है। उन्हें संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, 1991 में पद्मश्री और 2018 में गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर भारत के तीसरे सर्वोच्च नागरिक सम्मान, पद्म भूषण से सम्मानित किया गया। उनके योगदान को सराहा गया है, जो बिहार और उत्तर प्रदेश की संगीत परंपरा को जीवित रखने में अहम भूमिका निभाते हैं।

3. पति का समर्थन और परिवार

शारदा जी का विवाह 1970 में बेगूसराय जिले के सिहमा गाँव के ब्रज किशोर सिन्हा से हुआ था। ब्रज किशोर सिन्हा ने हमेशा उनके संगीत के प्रति लगाव को समझा और उनका प्रोत्साहन किया। उस समय भूमिहार समाज में महिलाओं का संगीत से जुड़ना असाधारण माना जाता था, लेकिन शारदा जी के पति ने उन्हें ससुराल में भी पूरा समर्थन दिया। यही कारण था कि शारदा जी ने अपने संगीत के सफर को कभी रोकने नहीं दिया और समाज की पारंपरिक सोच को चुनौती दी।

शारदा जी की एक पुत्री वंदना और एक पुत्र अंशुमान हैं, जो लगातार उनकी देखभाल में रहते थे। इन दोनों बच्चों के साथ शारदा जी के परिवार का भी गहरा जुड़ाव था।

4. प्रमुख गाने और गायकी

शारदा जी के गाने बिहार की सांस्कृतिक धरोहर को संजोते हैं और लोक संगीत में उनके योगदान का कोई मुकाबला नहीं। उनके द्वारा गाए गए प्रमुख गीतों में शामिल हैं:

“केलवा के पतवा पर उग हो सूरज”

“हो दीनानाथ”

“अंगना में पोखरी खनाएब छठी मैया”

“हे गंगा मैया”

“नदिया के तीरे-तीरे आयल”

इन गानों में छठ पर्व की धार्मिकता, लोक भक्ति और विवाह गीतों के रंग देखने को मिलते हैं।

5. संघर्ष और समर्पण

शारदा सिन्हा का जीवन संघर्षों से भरा रहा। उन्होंने पारंपरिक समाजिक बाधाओं को तोड़ा और अपनी गायकी के सफर को जारी रखा। वे भूमिहार समाज में एक महिला का संगीत से जुड़ना असाधारण मानते थे, लेकिन ससुराल पक्ष के समर्थन से उन्होंने अपनी संगीत यात्रा को जारी रखा। इसके अलावा, 2017 में मल्टीपल मायलोमा जैसी गंभीर बीमारी का सामना करने के बावजूद, उन्होंने अपनी संगीत साधना में कोई कमी नहीं आने दी।

शारदा जी के पति ब्रज किशोर सिन्हा के निधन के बाद भी उन्होंने संगीत से जुड़ी अपनी यात्रा को नहीं छोड़ा। उन्होंने कहा, “सिन्हा जी के बिना, बिंदी और सिंदूर के बिना जीना मुश्किल है, लेकिन मैं इस छठ पर गीत गाऊँगी।” इस संकल्प में उनके संगीत के प्रति अटूट समर्पण की झलक मिलती है।

6. शारदा सिन्हा की मृत्यु और उत्तराधिकार

2017 में शारदा सिन्हा को गंभीर बीमारी का सामना करना पड़ा, लेकिन इसके बावजूद उन्होंने अपनी संगीत साधना में कोई कमी नहीं आने दी। अपने पति के निधन के बाद भी उन्होंने छठ पर्व पर गीत गाने का संकल्प लिया। हालांकि, 4 नवंबर 2024 को उनकी मृत्यु की अफवाह उड़ी, जो बाद में असत्य साबित हुई।

उनकी पुत्री वंदना और पुत्र अंशुमान से लगातार संवाद बनाए रखने के बाद, 4 नवंबर 2024 की रात 10:22 बजे शारदा सिन्हा ने बैकुंठ धाम की ओर प्रस्थान किया।

7. शारदा सिन्हा का कालजयी योगदान

शारदा सिन्हा का संगीत बिहार की सांस्कृतिक धरोहर को संजोने तक सीमित नहीं रहा, बल्कि उन्होंने भारतीय लोक संगीत को एक नई पहचान और ऊँचाई प्रदान की। उनके अद्वितीय योगदान और संघर्षों के बावजूद उनकी संगीत यात्रा ने उन्हें कालजयी गायकी का हिस्सा बना दिया है।

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